14/12/12

कविता - सफ़ेद रौशनी की ठंडी लपट


दिमाग की नसें पिघल 
लावे का गर्म घोल बन जाती हैं
सारे ख्याल
पिछले-अगले
बुदबुदा कर
छोटे बुलबुले बन
फूटने से ज़रा सा पहले
सतरंगी हो जाते हैं
गोल बुलबले में
आखिरी बार उतरता है
माजी का मंज़र
और उबाल खाते घोल में खो जाता हैं

फिर वो बारीक़ अक्षुण हिस्सा फूलता है
जो प्रणय के पहले अहसास का है
बढ़ता ही चला जाता है
लावे की आग धीमी कर
उसे समेट देता है
फिर सब कुछ उसमें ही
एक-एक कर समता जाता है
आँखें पहली और आखिरी बार
बुलबुले के अंदर से
प्रणय का रंग देखने को खुलती हैं
और बंद हो जाती हैं

सफ़ेद रौशनी की ठंडी लपट आती है
ले जाती है


: शजर १४.१२.१२ नई दिल्ली 

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