11/5/14

जब भी माँ में होता हूँ छोटा होता हूँ

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जब भी माँ में होता हूँ छोटा होता हूँ 

mother's day

माँ को ज़हन में रख के कविता कैसे लिखूँ
उसी के जन्मे उसी के हिस्से
को उसके ही बारे में लिखने को

क्या बोलना पढ़ेगा
जो पल-पल माँ को याद किये जाता है
उसे समझ नहीं आता कि माँ नहीं भी हो सकती
माँ बस होती है........... इससे आगे और पीछे ज़हन को नहीं पता

इस रिश्ते की जादूगरी
देखिये
जब भी माँ में होता हूँ छोटा होता हूँ
भूल जाती है
उम्र अपनी सुइयों को
मुस्कान अपने दुखों को
खुशियाँ अपने आप को
और ऐसा और ऐसा बहुत कुछ होने के लिए
माँ का ख्याल ही चाहिए होता है
माँ एक ख्याल ही तो है
एक
अजर
अमर
जिंदा खयाल


भरत तिवारी  ११.०५.२०१४
नई दिल्ली

26/2/14

नग्न

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मेरे तेरे उसके 
उतरे हुए कपड़े 
पूरी तरह नग्न
चीरे गये कपड़े
उसके हाँथों मेरे
मेरे हाँथों तेरे
शहर का शहर नंगा
चीथड़ों से उठता धूंआ
धूएँ में तैरते
खेत
गाँव 
बैल
तैरते...
बस्ते
क़लम 
स्कूल का मैदान
राख हुए
सारे-सम्बन्ध 
आइने
मकान

जब सब नंगे हों
तो झूठ ?
झूठ सफ़ेद कपड़ा पहन 
कुछ नग्न ले गया साथ
सुना है -
अब वो भी वैसे ही कपड़े पहनते हैं

नग्न की परिभाषा,
अब बदल गई है

14/1/14

सुनो ! कब आओगी ?

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                                   मैं इस किनारे बैठा था
                                   और वो 
                                   दूसरे किनारे से भी दूर 
                                   कही छुप के बैठी रही,
                                   खड़े हो कर मैंने जोर से आवाज़ लगाई
                                                       ... सुनो ! कब आओगी ?
                                   पानी में पत्थर की तरह आवाज़, 
                                   दो-तीन टिप्पे खा कर... गुडुप.

                                   कम से कम किनारे पर ही जाओ - 
                                   रात में टॉर्च को जला-बुझा कर बातें कर लेंगे.

                                   सुना है, रौशनी की गति आवाज़ से तेज होती है.
                                                                                  #BharatTiwari

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