31/12/12
तुमको पता होगा tumko pata hoga
at
8:59 pm
24/12/12
चली देवी
at
9:01 pm
14/12/12
कविता - सफ़ेद रौशनी की ठंडी लपट
दिमाग की नसें पिघल
लावे का गर्म घोल बन जाती हैं
सारे ख्याल
पिछले-अगले
बुदबुदा कर
छोटे बुलबुले बन
सतरंगी हो जाते हैं
गोल बुलबले में
आखिरी बार उतरता है
माजी का मंज़र
और उबाल खाते घोल में खो जाता हैं
फिर वो बारीक़ अक्षुण हिस्सा फूलता है
जो प्रणय के पहले अहसास का है
बढ़ता ही चला जाता है
लावे की आग धीमी कर
उसे समेट देता है
फिर सब कुछ उसमें ही
एक-एक कर समता जाता है
आँखें पहली और आखिरी बार
बुलबुले के अंदर से
प्रणय का रंग देखने को खुलती हैं
और बंद हो जाती हैं
सफ़ेद रौशनी की ठंडी लपट आती है
ले जाती है
: शजर १४.१२.१२ नई दिल्ली
at
1:12 pm
9/12/12
मालिश - लघुकथा
प्रोफ़ेसर गुस्से में आपे से बाहर हो रहा है, ये उसकी तेज आवाज़ से
ज़ाहिर हो रहा था. “मुझ से हिन्दी की बात करता है. मुझ से, जो अपने सर के बाल से भी
ज्यादा कहानियाँ लिख चुका हो “ क्लास की खुसुर-फुसुर को दबाते हुए प्रोफेसर चीखा
“अनिमेष , तुम्हारी दोस्ती है ना डॉ. गुप्ता से “ ? कसैला सा स्वाद लिये मुँह से प्रोo बोला “उस से बोलो की अपनी क्लिनिक में मरीजों का इलाज़ करे” कहानियाँ,
कवितायेँ लिखने के लिये हिन्दी पढ़नी होती है , डाक्टरी नहीं” .
क्लास में आज चर्चा का विषय था “हिन्दी और उसकी उप भाषाएँ”, मगर विषय
बदल गया है, ये प्रो. के क्लास में आते ही सबको समझ आ गया था - “डॉ. गुप्ता की
कहानी “शब्दांकन” में छपी है ! ” प्रोo की आवाज़ में जलन की सड़ांध आ रही थी. क्लास
में पैदा होती आवाज़ों को दबाते हुए प्रो.बोला “अब तुम सीखना हिन्दी भाषा का शल्य
कैसे करें”
छुपाने के बावजूद प्रोo ने अनिमेष की मुस्कान पकड़ ली “आप कृपया
निकलें, चलिए जाइये, उस डॉ. गुप्ता से ही हिन्दी पढ़ लीजियेगा, एक उपन्यास लिखने
वाला तुम्हे लेखन तो नहीं सिखा पायेगा ,हाँ मालिश करना सिखा देगा , ये भी सिखा
देगा कि संपादकों की मालिश कैसे करो कि जो भी लिखो छप जाये”.
प्रोo के गुस्से में रात देर से सोने की बदबू आ रही थी और आँखों के रंग
में माइग्रेन का नशा दिख रहा था. अनिमेष क्लास से बाहर जाने को था कि मोबाईल की
घंटी बजी. फोन रखने पर उसके चेहरे कि मुस्कान देख प्रोo चिल्लाया “ऐसा क्या हो गया
“ ?
अनिमेष क्लास से बाहर निकल गया “डॉ. गुप्ता के उपन्यास को मैग्सेसे पुरस्कार मिला है” ये कहते हुए .
at
4:08 pm
8/12/12
धड़कता दिल उतारू है बगावत पर दीवाने का Dhadakta dil utaaroo hai baghawat par diwane ka
धड़कता दिल उतारू है बगावत पर दीवाने का नहीं सुनना उसे इक हर्फ़ भी कोई बहाने का हद्दों के पार होती जा रही है हर परेशानी समय आया बगावत का बिगुल अब तो बजाने का बहुत फैला लिये हैं पाँव उसने देख कर चलना हमीं में छुप के बैठा है कहीं दुश्मन ज़माने का उठो चुपचाप ना देखो लहू बहता हुआ ऐसे यही तो वक्त है ताकत जिगर की आज़माने का नहीं अच्छा उसे लगता किसी का बोलना कुछ भी किया है उसने बंदोबस्त आवाजें दबाने का कमर कस लो, जगे रहना, न आ जाये कहीं वापस नहीं देना 'भरत' मौका उसे कब्ज़ा जमाने का |
Dhadakta dil utaaroo hai baghawat par diwane ka Nahi sun’na usse ik harf bhi koyi bahane ka haddoN ke paar hoti ja rahi hai ab pareshani samay aaya baghawat ka bigul unko sunane ka bahut phaila liye haiN paaNv ussne dekh kar chalna hamiN me chhup ka baitha hai kahiN dushman zamane ka uttho chupchaap naa dekho lahoo bahta hua aise yahi to waqt hai taqat jigar ki aazmaane ka nahi achha usse lagta kisi ka bolna kuch bhi kiya hai ussne bandobast aawazeN dabane ka kamar kas lo, jage rahna, na aa jaye kahN wapas nahi dena ‘Bharat’ mouka usse kabza jamane ka |
at
11:45 am
2/12/12
मतलब निकल गया है अब वो कहाँ मिलेगा matlab nikal gaya hai ab vo kahaN milega
बेकार रो रहे हो, आँसू न इक बचेगा
मतलब निकल गया है अब वो कहाँ मिलेगा
आने लगा नज़र जो दर पे गरीब की है
वो चाँद ईद का नहीं हर साल जो दिखेगा
पहली खबर अभी तक समझा नहीं ज़माना
ऐलान कर दिया की कोई न कुछ कहेगा
वादा गवाह का है हर राज़ खोल देगा
मालुम उसे नहीं क्या सच बोल कर मरेगा
मर के न लौट आये फिर दुश्मन-ए-जहाँ कहीं
पहरा शब-ए-क़यामत भी कबर पे रहेगा
रोटी अमीर की है, सोना अमीर का सब
बाकी बचा गरीब वो भूख से मरेगा
अंदर रहें या बाहर डरते नहीं ज़रा भी
हिस्सा बराबरी का हर लूट में मिलेगा
|
bekaar
ro rahe ho, aaNsu na ik bachega
matlab
nikal gaya hai ab vo kahaN milega
aane
lage nazar jo dar pe garib kii hai
vo
chaaNd eid ka nahi har saal jo dikhega
pahli
khabar abhi tak samjha nahi zamana
ailaan
kar diya kii koyi na kuch kahega
vada
gavaah ka hai har raaz khol dega
malum
us’se nahi kya sach bol kar marega
mar
ke na lout aaye fir dushman-e-jahaN kahiN
pahra
shab-e-qayamat bhi qa’bar pe rahega
roti
amir kii hai sona amir ka sab
baqi
bacha garib vo bhookh se marega
aNdar
raheN ya bahar darte nahi zara bhi
hissa
barabari ka har loot meN milega
|
... शजर
at
12:09 pm
सदस्यता लें
संदेश (Atom)