7/9/13

कविता : टेल-बोन

1 टिप्पणी:
टेल-बोन
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चीख तो सब ने सुनी थी
समझी शायद ही किसी ने
चीख को शोर कह,
कानों पर हाथ रख लिए।
बोले नौटंकी है,
आंखें फेर बहुत दूर चले गए नजरों से 
दरवाज़े-खिड़कियां धड़-धड़ करके खुले
चूं चूं की आवाज़ के साथ धीरे से बंद होते गए,
मानो फुटबॉल मैच में मैक्सिकन-तरंग।
चूं चूं की आवाज़ दरवाजे से नहीं,
उसके पीछे एक-पर-दूसरे चेहरे की नहीं
डरपोकपन की होती है।
मनहूसियत और डरपोकपन  साथ-साथ रहते हैं – मरण-मरण का साथ ।

चीख की भाषा समझने के लिए
हटाने पढ़ते हैं,
कानों में लगे दर्द-को-पहुँचने-से-रोकने-वाले फिल्टर।
जिंदा करनी पड़ती है रीड़ की वो-नस
जो आँखों का देखा, देख
नहीं मुड़ने देती गर्दन दूसरी तरफ।
रीड़ की नसों को इतना ना मारा जाए
कि प्रकृति उन्हें टेल-बोन बना दे।
#BharatTiwari

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