27/2/13

आठवां

4 टिप्‍पणियां:



परिंदा बन रहा हूँ
परों पर कोपलें
उग रही हैं

सुना है
तुमने
सात आकाश बनाये हैं
मुझे आठवां देखना है

और तुम जिस आकाश से देखते हो
उसमें तुम्हे
देख लेता हूँ
खिड़की का पर्दा हटा कर

4/2/13

है पता उसको hai pata usko

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है पता उसको कि अर्ज़ी कब तिरी कितनी सही
माँगना  पड़ता  नहीं  कुछ,  आप दाता से कभी

इम्तिहाँ गर वो न लेगा, और लेगा कौन फ़िर ?
दे सज़ा जो गल्तियों की,  लाड भी करता वही

आग दोजख की उगलती है जुबां गुस्सा न कर
राख  किस को तू करे यों, सोच ये  भी  तो सही

रात -  दिन में फर्क क्या है,  बंद कर  ली आँख जब
अक्ल अपनी कम लगा तो फ़िर दिखे जल्वागिरी

अर्श आ जाये यहीं, अपनी नज़र नीची तो कर
हुस्न उसका देखने  जाना  ‘शजर’  पड़ता नही

hai   pata  usko  ki   arzi   kab  tiri   kitni  sahi
maNgna padta nahi kuch, aap daata se kabhi

imtihaaN  gar vo  na lega, aur lega koun fir ?
de saza jo galtiyoN kii, ladd bhi karta vahi

aag dojakh kii uglati hai zubaaN gussa na kar
raakh kis ko tu kar  yoN,  soch ye bhi to sahi

raat din me fark kya hai, band kar li aaNkh jab
akl  apni  kam  laga toh  fir  dikhe  jalva’giri

arsh aa jaye yahiN, apni nazar neechi to kar
husn  uska dekhne jaana ‘shajar’ padta nahi

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