4/8/12

गाथा

भरत तिवारी शजर युवा हिंदी उर्दू कवि शायर bharat tiwari shajar young hindi urdu poet गाथा 
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तब तक ऐसा लगता रहता था 
कि कोई शायद दरवाज़े पर सांकल छूने को है
कोई ना कोई आ मरेगा

आती तो सिर्फ तुम ही थी
क्यों ये अहसास तब ही तक बैठा रहता था 
जब तक तुम 

तुम तो जानती ही थी
कि किवाड़ खुला होगा
कभी दस्तक दी भी नहीं इसीलिए शायद 
बस आ जाती थी 
“दरवाज़ा बंद रखा करो” और चिटकनी लगा देती थी

कहाँ गये सुबह के वो बीस मिनट
ब्लैक कॉफी
एक्वेरियम से तुम्हारी गोल्ड फ़िश और मेरी ब्लैक मूर
उनकी सात मोटी गोल आँखों के जोड़े 
और तुम 

ये बताने के लिए लिखा इतना सब कि 
अब तुम आओगी तो दस्तक देनी पड़ेगी
... कि मैंने दरवाज़ों को बंद कर रखा है 
जो सिर्फ तुम्हारे लिये ही खुलेंगे 
...कि दस बरस से ऊपर हो गये
उन बीस मिनटों से मिले हमें

2 टिप्‍पणियां:

  1. किवाड़ वो मोटे वाले ही रहे होंगे.....उनमे चिटकनी तो होती नहीं थी....लकड़ी की एक फाचट रही होगी..जो एक खांचे में जाके चिटकनी का काम करती रही होगी. .....हाँ सांकल का वजूद तो रहा ही होगा.......
    यादों का दरवाजे पे आना......दृष्टिभ्रम तो कर ही देता है.
    दरवाजे को बंद करने की अपील थी या आदेश.
    दरवाजों को बंद करके रखना......कुण्डी के जोर से पटकते हुए सुनने की तमन्ना-वश ही होगा शायद.
    ---------यादों को हक्कीकत में उतारने में कोई कौर-कसर नहीं छोड़ी भरत भाई.........ग्रामीण शब्दों का प्रयोग शब्दों को गहरे अर्थों को समाहित किये हुए है......वाकई.

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    उत्तर
    1. सुदेश भाई वो कुण्डी थी जो अब चिटकनी हो गयी सांकल से होते होते ...
      आपने रचना को अपना प्यार दिया
      तहे दिल से आभार आपका
      सादर

      हटाएं

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