19/8/12

सिसिफस : अरुण देव

अरुण देव की कविता "सिसिफस: पढ़ कर बस ये हुआ कि बात करी जाये कवि से , करी, फ़िर रोक ना पाया इसे यहाँ प्रकाशित करने से ~
आप भी आनन्द उठायें  ... सादर भरत तिवारी
धूप उठी
और उठ कर बैठ गयी
नीद मेरी सोई पड़ी रही 

उस पर भार था एक पत्थर का
जिसे ले चढता उतरता था मैं रोज

मेरी नीद से
न जाने कहाँ चले गये महकती रातरानिओं के वे फूल
जिनसे बिधा रहता था मेरा दिन
कोई पुकार बजती रहती थी मेरे कानो को
जल के हिलते विस्तार से तारों की टिमटिमाती हुई

मेरी नीद पर खटखट नहीं करता अब
ओंस से भीगा वह हरा पत्ता
जो अभी भी अंतिम आकर्षण है
इस सृष्टि का
और सृष्टि किसी शेष नाग पर नहीं
इसी की नोंक पर टिकी है

मेरी नीद के जगने से पहले
उठ बैठती थी चिडिओं की चहचहाहट
नदी से लौटी हवा के गीले केश
बिखरे रहते थे मेरे गालों पर 

निरर्थक दिनचर्या की जंजीरों में जकड़ा
न जाने किस दलदल में
घिर गया हूँ मैं

एक ही रास्ते से आते-जाते
जैसे सारे रास्ते बंद हो गये हों

कौन बधिक है यह
जिसके जाल में फंस गया है मेरा दिन
और जिसके जंजाल में उलझ पड़ी हैं मेरी रातें.

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