
सोच अपनी आप ज़ाया
और नाहक़ ना करें
आँख देती है गवाही
झांक लें शक ना करें
कीजिये थोड़ी मुरव्वत
इक नज़र देखें इधर
इस तरह तो बेदखल
हमको अचानक ना करें
जो हटा दे रोज़
चेहरे से नक़ाब - ए - झूठ इक
बात पर उसकी यकीं
हम और कब तक ना करें
लाल - नीली बत्तियां पहने
मिले बाज़ार में
और हम से कह गये के
घर में रौनक ना करें
ठीक है के
ज़ख्म सारे भूल फिर जायें ‘शजर’
मुस्कुराहट पर भरोसा
अब यकायक ना करें | soch apni aap zaaya aur nahaqq na kareN
aaNkh deti hai gawahi
jhaaNk leN shaqq na kareN
kiiye thhodi murav’vat
ik nazar dekhen idhar
iss tarah toh be-dakhal
ham’ko acha’nak na kareN
jo hata de roz
chehre se naqaab - e - jhooth ik
baat par usski yakiN
ham aur kab tak na kareN
laal - neeli bat’ti’yaN pahne
mile bazaar meN
aur ham se kah gaye ke
ghar meN rounaq na kareN
theek hai ke
zakhm saare bhool jaayeN ‘Shajar’
muskura’hat par bharosa
ab yak -a- yak na kareN |
बहुत खुबसुरती से लिखी गयी गजल ,
जवाब देंहटाएंआपका शजरनामा देखा और सोच भी। बहुत खूब लिखा है मुस्कुराहट पर भरोसा अब यकायक ना करें, अच्छी ग़ज़ल और अच्छा ब्लाॅग। गर फुरसत मिले तो http://sumarnee.blogspot.in/ पर एक ग़ज़ल आपके इंतजार में है। शुभकामनाएं।
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